राईट टू एजुकेशन कानून की भ्रूण्‍ा हत्‍या



राईट टू एजुकेशन के मूल अधिकार को जिसे संसद ने बनाया माननीय उच्‍चतम न्‍यायालय ने वैध करार दिया। यह कानून देश भर में समान रुप से लागू होगा और इसके तहत देश के सभी सरकारी स्‍कूलों और निजी स्‍कूलों में गरीब बच्‍चों को पच्‍चीस फीसदी निश्‍श्‍ुल्‍क सीटें समान रुप से प्राप्‍त होंगी। बहुमत से दिये गये फैसले में माननीय न्‍यायालय ने कहा कि सरकारी और गैर सरकारी सहायता प्राप्‍त सभी स्‍कूलों में यह कानून प्रभावी होगा। सरकारी सहायता नहीं लेने वाले निजी या अल्‍पसंख्‍यक स्‍कूलों में यह लागू नहीं होगा।
सवान यह है कि क्‍या शिक्षा के इस अधिकार की दशा भी मनरेगा सौ दिन के रोजगार गारंटी जैसा नही हो गया है ? क्‍या यह कानून सही रुप से लागू हो पाया है ?  क्‍या इसके पालन करने हेतु कोई निगरानी कमेटी का निर्माण किया गया है ? अब तक के तमाम कानूनों को देखने के बाद ऐसा लगता है यह भी अपनी अकाल मौत मर रहा है। इस कानून की भी भ्रुण हत्‍या हो रही है। बाल श्रम को कानूनन जुर्म बना दिया गया लेकिन राजधानी दिल्‍ली में लाखों की संख्‍या ऐसे बच्‍चों की है जो होटल, ढाबों के अतिरिक्‍त जूते पालिस से लेकर गर्मी के मौसम में डीटीसी बसों के आगे पीछे पानी का पाउच बेचने के लिये भागते हैं।
दो साल से अधिक समय हो गया इस कानून के बने लेकिन राज्‍य सरकारें अभी भी इस कानून को लागू नही कर सकी हैं। एक कड़वी सच्‍चाई यह भी है कि ज्‍यादातर निजी स्‍कूल अब एक उद्योग के रुप में चल रहे हैं और इन पर दबंग और पैसे वालों का कब्‍जा है। इन विद्यालयों में बड़े नेताओं सांसदों, विधायकों और अधिकारियों के ही बच्‍चे पढते हैं वे क्‍या कभी यह पसंद करेंगे कि उनके बच्‍चे के साथ कोई गरीब का बच्‍चा पढें ? आज के दौर में सरकारी स्‍कूलों में बच्‍चे को भेजना तौहीन हो चुका है जब कि प्राईवेट और कांवेंट स्‍कूलों में बच्‍चों को पढाना स्‍टेटेस सिंबल बन चुका है। कभी शिक्षा ज्ञानार्जन का माध्‍यम हुआ करती थी, गुरु शिष्‍य परंपरा हुआ करता था लेकिन समय के साथ यह बाजार का हथियार बन चुका है। अंग्रेजी बोलना और अंग्रेजी माध्‍यम से पढना अब कारपोरेटी शिक्षा की मजबूरी बन चुकी है, मध्‍य वर्ग के आर्थिक दोहन का सबसे बड़ा श्रोत निकल कर आया है।
हांलाकि  मेरीट का अवलोकन करें तो आज भी सरकारी स्‍कूलों का मेरीट प्राईवेट के उपर हावी है, सीबीएसई का रिकार्ड देखा जाये तो सरकारी स्‍कूलों के छात्रों ने सभी को पीछे छोड़ा है। एक सवाल यह भी उठ रहा है क्‍या सरकार सबको शिक्षा का अधिकार देकर सारी जिम्‍मेदारी निजी स्‍कूलों पर थोपना चाहती है ? धीरे-धीरे सरकारी स्‍कूलों से सुविधायें खीचने की यह शुरुआत तो नही ? सरकार निजी स्‍कूलों को बंद करके या सभी सकूलों का सरकारीकरण करके अपने दायित्‍वों को बेहतर तरीके से क्‍यों नही करना चाहती ? लेकिन सरकार के पास इन सवालों का कोई जवाब नही वह जिम्‍मेदारी से भागने में ही सूकून महसूस कर रही है जिससे वैश्‍वीकरण और उदारीकरण के लक्ष्‍यों को प्राप्‍त किया जा सके। सरकार की अघोषित नीति बन चुकी है कि वह प्राथमिक शिक्षा पर सबसे ज्‍यादे बजट का प्रावधान करती है और उच्‍च्‍ शिक्षा के अपने दायित्‍वों से भी भाग रही है। प्राथमिक शिक्षा सबके लिये उपल्‍ब्‍ध करा कर रोजगारपरक उच्‍च शिक्षा को कारपोरेट जगत के हवाले किया जाना इस बात की ओर संकेत करता है कि सरकार सिर्फ पैसे के आधार पर शिक्षा को एक प्रोडक्‍ट के नाते देखती है।
दूसरी बात कि शिक्षा के अधिकार कानून के कारण पच्‍चीस फीसदी सीटें जो गरीब बच्‍चे को दिया जाना है उसका घाटा पूरा करने के लिये अंधाधुध फीस में बढोत्‍तरी की जा रही है जिसका सीधा शिकार मध्‍य वर्ग को ही होना है। यक्ष प्रश्‍न यह है कि क्‍या सिर्फ दाखिला मिल जाने मात्र से ही गरीब का बच्‍चा स्‍कूल में शिक्षा प्राप्‍त कर लेगा यह तो वैसा ही लगता है जैसे देश के अस्‍सी फीसद किसान यह नही जानते कि किसान काल सेंटर क्‍या होता है या नब्‍बे फीसदी जनता सूचना के अधिकार कानून के प्रयोग करने के तरीके के प्रति अंजान है। एक छोटे गरीब बालक को क्‍या पता कि बाल श्रम गैर कानूनी है, उसे तो बस दो जून की रोटी भर चाहिये। मान लें कि स्‍कूल फीस माफ भी कर दी जायेगी तो निजी स्‍कूलों के तरह-तरह के नखरे कौन पूरे करेगा। कभी स्‍कूल का यूनिफार्म, वह भी अलग-अलग दिनों का अलग-अलग तो कभी स्‍कूल टूर तो कभी कल्‍चर प्रोग्राम तो स्‍कूल और रिक्‍शें का किराया तो कभी अनुपस्थित होने का फाईन कौन देगा ? कभी मम्‍मी पापा की मिटींग  हुई तो शायद वह हीनभावना के कारण अपने अभिभावक को बुलाना ही न चाहे या अभिभावक खाते-पीते मम्‍मी पापाओं के साथ मिटींग में बैठने का दुस्‍साहस न कर पाये।
यदि सरकार वास्‍तव में गंभीर है तो उसे चाहिये कि सभी स्‍कूलों का सरकारी करण करके समान शिक्षा की व्‍यवस्‍था करें लेकिन यह संभव नही दिखाई देता क्‍यों कि सरकार के पास इसके लिये इच्‍छा शक्ति होनी चाहिये और फिलहाल वह कहीं नही दिखाई देती कि शिक्षा संस्‍थान नान प्राफिट सरकारी संगठन हो सकें।

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