कोरबा जनजाति की महिला लड रही है मातृत्व के अधिकार की लडाई
। राजधानी दिल्ली में एकतरफ खाने के मौलिक अधिकार को
लेकर प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय जेएनयू मे घमासान मचा है तो दूसरी तरफ छतिसगढ की
एक आदिवासी महिला मातृत्व के मौलिक अधिकार की लड़ाई लड़ने सड़कों पर उतर आई है। छतिसगढ
के आदिवासी ईलाके की एक महिला रायपुर से अपनी लड़ाई लेकर राजधानी नई दिल्ली पहुंच
गई है। महिला का आरोप वहां के डाक्टरों पर है जिन्होंने पैसे के लालच में उसके
मां बन पाने की संभावना को समाप्त कर दिया है। अब यह महिला राजधानी दिल्ली की
सड़कों पर मातृत्व की लड़ाई लड़ने पहुंच गई है। छतिसगढ के रायपुर में
पिछले दिनों सरकार की एक योजना को लेकर काफी बवाल मचा था जिसमें सरकार ने गरीबों
को ईलाज के लिये चालिस हजार रुपये देने का ऐलान किया था। राज्य के डाक्टरों ने
गरीब आदिवासी महिलाओं को ईलाज के नाम पर गंभीर गैरजरुरी आपरेशन कर सरकार से पैसे
की वसूली शुरु कर दी थी।
उत्तरी छतिसगढ के सरगुजा की फूलसुंदरी पहाड़ी कोरवा
कहती है कि मेरे कुल छह बच्चे हैं और मै अब नही चाहती। सरकार ने कहा था कि
परिवार का सीमित रखने पर सुविधायें मिलेगी हमे ग्रामीण हेल्थ वर्कर ने कहा कि एक
छोटा सा आपरेशन किया जायेगा जिससे परिवार नियोजन किया जा सकेगा। उल्लेखनीय है कि
इंदिरा सरकार के दौरान कुछ आदिवासी जनजातियों को कानून बना कर परिवार नियोजन से
अलग रखा गया था जिसके अंर्तगत फूलकुमारी आती है। इस आदिवासी महिला के पति मनरेगा
के अंर्तगत कार्यकरने वाला मजदूर है।
उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों राजधानी रायपुर में
गर्भाशय कांड का मुददा काफी चर्चा में रहा है, जिसमें डाक्टरों पर यह आरोप लगाया
गया था कि सरकार की गरीबों के निश्शुल्क ईलाज योजना का लाभ उठाने के लिये धोखा
से आपरेशन किये गये। इस बारे में जब राज्य के स्वास्थ्य मंत्री अनिल अग्रवाल से
बात की गई तो उन्होंने कहा कि डाक्टरों के खिलाफ कार्रवाई सुनिश्चित की जा रही
है जो भी दोषी पाये जायेगें वह बक्शे नही जायेगे। वहीं दिल्ली स्थित चाणक्यपुर
में राज्य के सूचना अधिकारी उमेश मिश्रा का कहना है कि मीडिया ने इस मुददे को
काफी उछाल दिया है जबकि कार्रवाई हो रही है और गरीबों के साथ कोई अन्याय नही होने
दिया जायेगा।
पहाडी कोरवा जनजाति के कुछ आदिवासी जिनको डाक्टरों
ने आपरेशन करके मातृत्व से वंचित कर दिया है वह मातृत्व के अधिकार को लेकर दिल्ली
में विभिन्न कार्यालयों के चक्कर लगाने के साथ ही जंतर-मंतर पर बैठने का ऐलान कर
रहे हैं। राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वे के रिकार्ड को देखा जाये तो
राष्ट्रीय औसत से राज्य की कोरवा जनजाति के बच्चों का औसत वजन 46 फीसदी कम है।
70 फीसदी बच्चों का जन्म मानक वजन से कम पर ही होता है, इसी जनजाति की एक युवती
ने बताया कि हमारे यहां पढा लिखे लोग नहीं है सिर्फ बीमारियां और छूआछूत के रोग
हैं। देखना है कि राज्य सरकार डाक्टरों के खिलाफ क्या कार्रवाई करती है तो वहीं
केंद्र सरकार इन आदिवासी महिलाओं के दर्द को कहां तक समझ पाती है क्यों कि
जानकारों के अनुसार चिकित्सा और स्वास्थ्य के लिये जितनी जवाबदेही राज्य की
है उतनी ही केंद्र सरकार की है।
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